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अदभुत गुण सागर “माँ”


माँ की ममता का मोल नही होता
करूणा भी कोई तोल नही सकता
माँ की मधुर डाँट रस्ते बुनती है
दुर्गम पथ आशीष लिये कटते हैं
कैसे रैन -चैन माँ शिशु पर वारी
मुझे विश्राम समय अनुभव होते है
माँ-सागर ,शिखर ,गिरि कभी लावा है
माँ -शीतल, मोम, शिला, कहि ज्वाला है
माँ-धैर्य,धर्म,सृष्टि की पोषक है
माँ-स्नेह,समर्पण को अति अर्पण है
माँ- अादि, अन्नत रास्तों का दर्पण है
माँ- मेरा जीवन तो तेरा ऋण है ।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर ,तुझे नमन है।

माँ तेरे साये मे बडा हुआ था
डग-मग गिरा पडा, तब खड़ा हुआ था
पग-पग चलता, तुम पुल्कित होती थी
झट से थामा, जब गलती होती थी
भरूँ किल्कारी , तुम नकल भी करती
कब माँ बोली,तुझे बडी थी जल्दी
तुम तुत्ला कर कभी मुझे खिलाती
मैं भी तुत्लाता, तुम खुश हो जाती
पर मेरी जिद तुम रोकना चाहती
फिर जिद कर रोता,तुम मान भी जाती
मेरी भूख , चपलता मंद पड जाती
तुम भय, शंका सागर मे बह जाती।
                    तुम हो वन्दनिय माँ, तुम से चमन है,
                    है अदभुत गुण सागर, तुझे नमन है।



जब अखाद्य मैं खाता, माँ बिगडती
झट मुँह से निकाल, कहीं दूर रखती
जाने क्या स्वाद छिपा था जो खाता?
ये पैन, पैन्सिल,इकन्नी कभी मिट्टी
थी एकाग्र माँ, क्या खाऊँ,कब,कितना?
दुलार से स्वाद दुगना माँ करती,
मालिस कर नहलाती,खूब सजाती
कोमल तन को होंठों से गुदगुदाती
मेरी हंसी माँ की सफलता बनती
विजय की साँस, सो जाऊँ तब दिखती
मैं एकाँत मे ना डरूँ,नजर रखती।
स्नेह की सुनामी रोके नही रूकती
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

माँ कमजोर बहुत तुम थक जाती थी
पर मैं रोता तुम दौड़ी आती थी
माँ झट उठा कर आँचल मे छिपाती
फिर मुझको अमृत पान कराती
पर मै अबोध शिशु कितना ‘पी’ पाता
क्या सुखी छाती से सींचा जाता
तब मै झुजलाता , फिर पाँव चलाता
शब्द कहाँ थे,जो तुमको समझाता
पर तुम्हे ज्ञात थी अपनी कमजोरी
अाैर मेरी झुजलाहटों की बोली
तन की पीडा भूलकर प्यारी माँ
तुम दूध लेने झट बाहर दौडती।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



मै क्यों ना रोता माँ भूख बड़ी थी
तेरी वेदना की समझ ही क्या थी?
मेरा रूदन, तुम्हे तडफाता था
पर मुझे हँसाने तुम हँसती थी
जब मिश्रित यादों का मंथन होता था
तब कुछ यादें मर्माहत करती थी,
माँ जब तुमने अन्न न पाया होगा
तब गरीबी मे क्या खाया होगा?
बस-चटनी संग एक मोटी रोटी
और बहुत हुआ एक पानी लोटा
तन सूख गया माँ, आँखें धसती थी
पर माँ की ममता कितनी सुन्दर थी।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

तुम स्नेह वश मुझको सहलाती थी
चखकर बोतल से दूध पिलाती थी
जब वात्सल्यमय लोरियाँ गाती थी
तो रूह तक ऐहशाष जगाती थी
मै सो जाता-क्या माँ तुम सोती थी?
ममता कब सोती- भोर हो चुकी थी
भूख, निंद्रा से भी श्रेष्ठ थी ममता
मुझ संग धरती पर अमृत सुख सींचा
माँ त्याग, समर्पण पर भी हर्षाती
सुरक्षा भाव लिये आँचल फैलाती
अक्षम, निढाल पडी करे श्रवण लम्हा
पर तेरा टौनिक तो मै था अम्मा।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



माँ लेकर आई एक दिन खिलौना
वो भी चटका ,पर हर्ष था दरिद्र का
माँ मुझे दिखाती , कुछ खेल रचाती
मुझ संग खेली और खुब हँसाती
मै खिलखिलाता , कभी चुप हो जाता
कभी खेल मे माँ मुझे गुदगुदाती
इस खेल मे गंगा -जमना बहती थी
यही ममता दुख दर्द स्वाह करती थी
हर्ष जब दरिद्र की खुराक बनती थी
पानी अमृत,रोटी मिश्री लगती थी
प्रेमाशिष छप्पन भोग सा ‘तर’था
तुम हो माँ जग मे पारस से कम क्या?
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

मुझे गोद ले,जब एक दिन सड़क पर
तुम गिर पड़ी जोर से ठोकर खाकर
झट मुझे टटोला , फिर झाडा पौंछा
प्रेम दिवानी स्वयं का नही सोचा?
तब लहु – सुहाना थे कोहली,घुटना
फिर घाव को फूक-फूक कर सहना
माँ मुझे याद है तेरा लंगडाँना
हर करवट पर , कहरा कर दुख ढोना
मैं भी दुख देता ,रातों को रोता
अति दुखदाई,मुझे शौच का होना
तुम ताप मे उठती ‘उफ’ ना करती
माँ मेरा सुख था तेरी कमजोरी।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



दवा क्या करती,बस दुआ करती थी
आश-साँस इन दुआवों का कर्ज़ थी
परिश्रम कर भी जो मिलते ‘दो आना’
बस एक आने मे गुजर करती थी
मुझ को पढाने, चाव से संवारने
शेष एक आना खर्चा करती थी
विकट समय संग , संग्राम था लम्बा
सदा मन-मस्तिक में द्वन्द था रहता
माँ ‘सिर’हाथ रख दुलार दिखाती
फिर वीरों की ‘कथा’ मुझको सुनाती
मै सो जाता, माँ सपने बुनती थी
मुझको निहार सुख अनुभव करती थी।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

माँ तुमने कभी ना डाँटा था दिल से
पर मै विलाप कर ‘रो’ पड़ता झट से
ममता कहती झट आलिंगन कर लूँ
पर झूठा क्रोध दर्शाती ऊपर से
मै रूदन बढाता, शायद तुम पिघलो
पर माँ की समझ कहाँ कच्ची थी मुझसे
मर्माहत थी पर मुझको गढ़ती थी
हर ‘रार’ पर माँ भी कहाँ झुकती थी
“माँ जिद्दी है “-मै आक्रोश भी करता
वो कुंदन बनाती- मै कठोर समझा
माँ की ‘थाह’ मै अज्ञानी क्या समझूँ
जिस ममता की ‘तह’ भगवान न पहुँचा।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



बचपन मे पढ़ना संघर्ष लगता था
क्रीड़ा,मस्ती कर खुद को छलता था
माँ भूख सहे, इन्तजार थी करती
जब स्कूल से लौटा ,तब माँ खिलती थी
मै बर्दी उतारता,कहीं पर जूता
मै कहीं भी पटक देता था बस्ता
माँ मुस्करा कर सहेजा करती थी
मै सरपट खेलने बाहर दौडता
माँ चिल्लाती-‘भोजन तो कर मुन्ना’
पर ‘लाड’में ‘डर’ नही टिकता अम्मा
तुम द्वार तक दौडती-‘ शायद सुन ले’
माँ मुझ बिन खा लेती ,कहाँ जिगर था।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

मै पतंग लूट कर बडा इठलाता
पतंग लहराता,माँ को दिखलाता
कंचे जब खेलूँ ,खूब अंट लगाता
कभी रस्सी झटकी ,लटटू घुमाता
आइस-पाइस-चोर सिपाही खेलूँ
गुल्ली-डण्डे पर सभी को छकाता
गिट्टे, लूडो , पिटठू , कैरम सब खेला
कबड्डी,खो खेल कर गबरू हो गया
पर पढ़ने जब भी माँ थी पुकारती
मै झट घर दौडा,नही समय गंवाया
मै माँ का तप था, प्रभात भविष्य का
मेरी मुद्रा संग दिखा,सुख-दुख माँ का।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



कभी बनी न सहेली कोई माँ की
क्यों बनता यहाँ कोई दोस्त मेरा?
समाज को श्राप ,हम समस्या लगते
दरिद्र को, स्वार्थ बिना, क्यों मान मिलता?
पुस्तकों सा मित्र ना कोई होता माँ
तुमने यही सत्य मुझको समझाया
जब इसी दोस्त ने सम्मान दिलाया
तभी जीवन का लक्ष्य समझ आया
पुस्तक से दोस्ती ,था समय कीमती
खुद आचरण वो किया ,माँ जो बोली
निस्वार्थ ,निर्मल माँ, धरा के जैसी
जग मे मां जैसा ना किरदार कहीं ।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

माँ बर्तन साफ राख से करती थी।
वो फटी हथेली मुझको चुभती थी
माँ कपड़ों की साबुन से नहाई
तभी तो झुर्रियाँ मां पर दिखती थी
ढीली खटिया पर मजबूरन सोई
कमर का दर्द तभी तो सहती थी
जब लगती गर्मी मुझे गत्ता झलती
बाजू की हड्डियाँ किट-किट करती थी
ऊर्जावान रही माँ , काम ना छोडा
माँ को मै समझूँ , वो ज्ञान शून्य था
वो लडकपन-माँ थी संग , दुख न समझा
अम्मा -सब कुछ तो तुमने भुगता था।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



चिन्ता थी बिगड़,प्राण छल सकती थी
जवान माँ पर ‘वृद्धाकृति’ बुनती थी
स्वयं तपी माँ ,घर गुलजार रखती थी
मां को हार कभी स्वीकार नही थी
मै खेल मे उदण्डता करता था
फिर माँ के सम्मुख निर्भर जा छिपता
मिले उलाहना,माँ ‘क्षमा’ कहती थी
माँ दोषारोप पर ढाल बनती थी
अभिशाप थी दरिद्रता, माँ संयम रखती
फिर मुझको डांट कर ,लाड भी करती
सफल हुआ “तप”-कष्ट अतीत बन गया
हुई हँसमुख माँ -अब नूर दिखता था।
                    तुम हो वन्दनिय माँ,तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

बेटा,सड़क ठीक से पार करना
तू देख- किसी से झगडा मत करना
माँ की ममता का वही स्वर आज भी
मै प्रेमाशीष ग्रहण कर लेता हूँ
अब तो जिले का मालिक “डी.एम.” हूँ
पर माँ तेरे लिये तो बच्चा हूँ
वस्त्रों को सिल-सिल कर मुझे पढ़ाया
बंजर को चमका कर, फलदार बनाया
माँ संघर्ष मे कहीं जो अटक जाती
मेरी नय्या भी दिशा भटक जाती
पतवार न छोडी , मौषम बदल गया
माँ तेरे संघर्ष से वक्त डर गया।
                    तुम हो वन्दनिय माँ, तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।



“सर” हूँ शहर का, हुकूमत चलती है
पर माँ “सड़क ठीक पार” को कहती है
यह सुन ‘घरकर्मी’ सवालिया बनता था
वो क्या जाने,मै बड़ा कहाँ हुआ था?
माँ की लाड-डाँट अब तक चलती है
पत्नी चुप – बच्चों को शिक्षा मिलती है
माँ हँसी मे कान ऐंठा करती है
‘नटखट’ ताल ठोस हँसने लगते है
बच्चों को डाँटू, कुछ हक है मेरा
पर दादी की “शै” जो चुप रखती है
“बेटी से दादी तक”, अतुल प्रेम माँ ।
जीवन मे ,कई जन्म जीती है माँ ।
                    तुम हो वन्दनिय माँ, तुम से चमन है,
                    है अदभुत गुण सागर, तुझे नमन है।



तुम पूज्य श्री, माता श्री,महा श्री हो
तुम र्स्वश्री, श्रीयों मे र्स्वोपरि हो
तुम हो तभी अन्य श्री भी बनते है
माँ तुम बिन फल -फूल कहाँ खिलते हैं
जो अहंकार मे डूबे , श्री प्रधान हैं
वो तथ्यों से भला कहाँ जुडते है?
है व्यथा समाजिक “यत्र नारी पुज्यते”
किन्तु अमल मे “दो दर्जा” रखते हैं
जो बहुत पढ गये , पर गुणे नही हैं
ऐसे शिक्षित मूर्ख बहुत मिलते है
माँ युगों से पोषक- आज भी पोषक
फिर पुरुष प्रधान कैसे बनते है?
                    तुम हो वन्दनिय माँ, तुम से चमन है,
                    है अदभुत गुण सागर, तुझे नमन है।

माँ से है जीवन ,हँसता बचपन है
ये वन सा जीवन ,माँ संग मधुवन है
प्रथम र्स्वोत्तम गुरू माँ ही होती है
रंगाकृति माटी की, माँ ही गढ़ती है
फिर संतान जिस पथ को चुनती है
माँ की परवरिष भी लक्षित होती है
सदा सचेत कर मुझे माँ समझाती
क्या घुंगराले समाज की ‘हद’ होती है
अमृत -विष का मंथन कर पथ चुनना है
बड़ा न सही , पर इन्सान बनना है
जटिल है दुनियाँ , पर संघर्ष करना है
यही श्रेष्ठ माँ को सच्ची दक्षिणा है।
                    तुम हो वन्दनिय माँ, तुम से चमन है,
                    हे अदभुत गुण सागर तुझे नमन है।

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Bijender Singh Bhandari

Bijender Singh Bhandari, First Hindi Blogger on WEXT.in Community is retired Govt. Employee born in 1952. He is having a Great Intrest in Writing Hindi Poems.

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