नारि जन्म ,जननी फलकारी
स्नेह की पात्र हूँ , समझो तो
मानस हूँ , समान हकधारी
क्या दुखता है , कुछ समझो तो
सास न समझे बेटी तो क्या
गम धूल जाते , तुम प्रेम करो
पर तुम भी समझे वस्तु मुझे
“रीमोट नारी “ घर सजवाट की
विलाष , कभी उपहाष किया
कभी लड़े नियोजित नीति से
सास की तंज, सेविका कहकर
देवर – ननद की कही सुनकर ,
ये कुंठित सोच कब बदलेगा , आखिर कब तक यही चलेगा ?
बुन कर आई मैं भी खुशियाँ
कुछ भाव मेरे भी समझो तो
मैं भी सहभार्या इस घर की
तुम इतना तो मससूस करो
बहू लडो है किसी घर की
इस घर लाये परिजन समझो
पर तुम समझे जूती मुझको
खुद को श्रेषट जतलाते रहे
मर्दागिनी दिखलाते रहे
फिर खो दिये कई स्वर्णिम क्षण
मिलाप और प्रेमालाप के
मानषिक कुठाराघात कर के,
ये कुंठित सोच कब बदलेगा , आखिर कब तक यही चलेगा ?
मैं तुम्हारी प्रीत पुरानी
वो लम्हे , प्रिय श्रवण तो करो
मैं सुख-दुख की अब अर्धागिन
मुझे इतना तो कबूल करो
तुम भय दिखाते कभी छल-बल
मैं मति मंद नहीं, बस चुप हूँ
पर तुम दरसाते दास प्रथा
युगों पुरानी – अहम बदस्तूर
गिरा कर मेरा आत्म शकून
अस्तित्व अब समझते फजूल
कभी दिखाते थे सब्जवाग
अब तुनक कर ढाते हो जुल्म
ये कुंठित सोच कब बदलेगा , आखिर कब तक यही चलेगा ?
Must Read: कुछ पेड लगा
सभी कहते नारि को लक्ष्मी
पर तुम मानो या ना मानो
प्रभु ने रचा तुम जैसा ही
कुछ तो प्रिय व्यवहार करो
मैं देव तुल्य मानू तुमको
इस आदर का कुछ मान रखो
पर तुम समझे कुलक्षणी मुझे
चाबुक सा बतिया कर गिराया
नकेल कसी ‘हद’ को समझाया
लिंग भेद कर “वजूद” दिखाया
दूध में पड़ी मक्खी जैसा
चूल्हे पर पीसा चक्की जैसा
ये कुंठित सोच कब बदलेगा , आखिर कब तक यही चलेगा ?
नारि है क्या , समय को समझो
अचंभित कर दूँगी काम से
दो कुटुंब का हर्ष बनूँगी
गर्व होगा मेरे नाम से
मुझ पर पर्दा , चार दिवारी
शंका – प्रतिबंध का क्यों है दंश
माता – पिता पर अभद्र टिप्पणी
कभी भाई – बहन कोषते तुम
तुम उनकी चुप्पी क्या समझो
दिल रोता है आँखें पढ़ लो
खुद पर बीते तब समझो तुम
मनषिक दर्द से गूजरों जब
ये कुंठित सोच कब बदलेगा , आखिर कब तक यही चलेगा ?