मै देख तो रही थी सब कुछ
फिर क्यों दर्शाती अँधी हूँ?
मै सुन भी लेती थी सब कुछ
फिर क्यों दिखाती बहरी हूँ?
मै बोला करती हूँ सब कुछ
फिर क्यों बन गई गूँगी हूँ?
मै चुप रही समझ कर सब कुछ
फिर क्यों शुन्य मे जलती हूँ?
बस,दफ्तर या पैदल पथ पर
नयन कटारी, शब्द बाणों से
अंग-अंग हुआ छलनी मेरा
मै सहमी चुप सह जाती थी
पर कब तक उनसे घबराती ?
इक दिन बेसुध सी गर्ज उठी
सहसा स्वर फिसले तब समझी
शायद तुत्लाहट है बाकी।
नई हिम्मत का संचार हुआ
तब संकोचों का संहार किया
फिर अबला से सबला मैने
निर्भय दुर्जन पर वार किया
निर्बल न थी ,मान से चुप थी
किसने अपमान का हक दिया ?
नारि उठे तो क्या कर सकती
सिरफिरों का तब इलाज किया।
नारी हूँ इक्किसवीं शदी की
अपना अधिकार समझ आया
समानता का हक मै ढूँडू
ऐसा समाज को कब भाया?
दकियानुसी विचार उठे जब
मैने भी सबको ठुकराया
दुनियाँ मे जीना था मुझको
खुद साहस को अमृत पिलाया।
आँख, कान,जुबान मे जंक थी
उसको मैने दूर हटाया
तब अनुचित ना मुझको भाया
अब सबल नारि बन कर देखूँ
जग परिवर्तन-नभ परिवर्तन
हृदय की उमंगे परिवर्तन
इस पथ परिवर्तन मे गूँगी
अबला खो गई जानें किधर?
nice…encouraging
Thanks My Sweet Daughter.. Annu.. Love you 🙂