ज़ुल्मों से तंग वो पहुचे जिस शहर
जो वाशिंदा मिला “मोम” बनकर मिला
मधुर बात कर वो बड़ा मुस्कुराता
सदा दूषित हवा सा घेरता रहा ।
माँगी जब मदद , उसकी बदली नज़र
पिघलने ने को धूर्त जज़्बात छेड़ता
संकट मिटाने , शर्त कहीं संकेत में
सम्य शब्दों में, कुमंशा गढ़ता रहा ।
स्थिर नज़र किये, निकट बगुले खड़े हैं
सांस लेने “सतह” पर उछलना नहीं
कुवंस की घातक फितरत को समझो
जो फंसी चोंच में , वो निकलती नहीं
नारि के प्रति – नर सोच दकियानूसी
मर्द अहंकार ने घर तोड़ कई
उसे चिड़िया , मछली , मुर्गा भी कहा
यही तीर अपनों पर सहे क्यों नहीं
हर नारि समाज में सम्मान रखती
क्यों माँ- बहन संबोधित करते नहीं
जब “ मति” मे पके बसाना का ‘कचरा’
“भैया” कह दिया – उसको गली लगी
दूर तक, घूर कर नारि तुलती रही
स्वछन्द हक है – पर रखो उपचार भी
गटर मुख खुलते ही, दुर्गंध उठेगी
बचा ‘नाक’ उनसे, विशैले हैं कई
बदला था शहर , पर शहरी हैं वही
शराफत की आड़ सौदा निकली
मर्द सहना पड़ेगा ‘ यहाँ क्या वहाँ
नसुर है पुराना –‘जंग बीहड़ लंबी’
बगुले की सोच – बातों मोम जैसी
पनप रहे ‘ असम्य’ – दोगले हर गली
घर के ठीक न हों, तो सुधरें कैसे ?
सिर्फ ‘कानून’ से बात बनती नही ।