panwaadi
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पनवाड़ी चच्चा… पन्ना लाल
कुछ कहना चाहता हूँ, क्योंकि चीखना चाहता हूँ, चिल्लाना चाहता हूँ सबसे छुप कर भी रोना चाहता हूँ. ऐ शहर तुझी में जन्मा, यहीं गंगा की रेत में धुनी जमाते हुए बलखा, यहीं पे खुली हवाएं थीं तब, रिश्तों में हर तरह का स्वाद थे तब. घर के थे बच्चे किसी ने आके कुछ करते जो देखा, वहीं ठोका पीटा, तो अगले ने आकर गले लगाया, हम मान गए, कभी न कोई आया तो हम खुद भी मान जाते. पर रिश्तों में कुछ अलग है इक माँ के अलावा हमें तो न था तब यह एहलाम इतना.
बुआ हैं,  चाचा हैं चाची  चाचा हैं, ताऊ हैं और एक पापा भी हैं, दादा हैं दादी हैं ननिहाल जाओ तो मौसी हैं मामा, नाना हैं नानी हैं. कितने रिश्तों को समेटे हुए जीते थे हम. बच्चों की भीड़ भाई बहनों के बीच घर था या तबेला मेरे दोस्तों, आज के एकाकी परिवारों में जी रहे लोग शायद वह देखकर ऐसे ही रियेक्ट करेंगे.
हमरी शिक्षा तो एक पनवाड़ी के यहाँ से शुरू हुई, जहाँ अक्सर मुझे बिठाकर, पिता जी मुझे ही भूलकर चले जाते थे. ये पनवाड़ी तब उस समय के मुहल्ले और आस पास का गूगल मैप हुआ करते थे.




कौन मिश्रा जी जिनकर बेटवा बहुत दारू पियत है, अच्छा ऊ बंगाली बाबू जिनकी औरत बहुत जवान हैं, अच्छा ऊ लाला जी जिनकर लड़की बहुत तेज है. अक्सर समाज में वही मान्य होता था, जो यहाँ मान्य था…
अतः उस समय के पनवाड़ियों को समाज का आईना कहा जा सकता है. उनकी समाज पर नकेल कसने में महती भूमिका के लिए दरअसल उन्हें सम्मानित किया जाना चाहिए और आज के गूगल मैप को और भी अपग्रेड करने में इनकी मदद ली जानी चाहिए. कैसे आप शर्मा, वर्मा, सबके घरों को असल में जान सकते हैं. नॉट ऑन द बेस ऑफ़ प्रोफाइल्स, जो कितने सच होते हैं वो अक्सर इन्हें बनाने वालों को भी नहीं पता होता.
इससे अच्छा है पुराने पनवाड़ी फिर बुलवाओ, पुरानी चौराहेबाजी को वापस लौटाओ, कब तक पड़े रहोगे गूगल मैप के फेर में, चले आओ पुराने उस दौर में जब होती चकल्लस घंटों राजनीति पे. फिर मैं स्कूल जाने लगा तो पनवाड़ी अंकल से संपर्क टूट सा गया. फिर पुनः उस दुकान पर तब मैं लौटा जब मेरी मूँछें आ चुकी थीं, अब उनका लड़का दूकान पर बैठता था और जब कभी वो पुराने अंकल होते तो मैं दूकान पर नहीं जाता था.
फिर एक दिन दूकान पर कोई नहीं था मैं वेट करने लगा और वो आ गए और बोल पड़े का रे मुनवा तू तो हमको कभी दिखा नहीं हमरी दुकान पे लेकिन हमरे बही खाते में तेरा हिसाब किताब बराबर दिखे है. चार पांच सौ की उधारी हमेशा बनी रहती है.
अब क्या था अब उनसे भी उधारी होने लगी, अब उधार बजट आवंटन जस्ट डबल हो गया था, वो कई बार सिगरेट पीने को छोड़ने के लिए भी कहते और एक दिन वो पनवाड़ी अंकल खुद हमें छोड़कर  दिए, धरती से स्वर्ग के वासी हो गए वो.




हम लोग भी गए पनवाड़ी अंकल के पीछे पीछे शमशान, उनको फूंकने तापने के बाद हमने उनके लड़के से सिगरेट की व्यवस्था करने को कहा वो रोते हुए बोला मेरा झोला लेकर आओ, अब क्या था सिगरेट, गुटका पान सब वहीं बिकने लगा. वह भी खुश पिता जी तो जाते जाते भी धंधा करवा के गए.
वो पुराने दौर के पनवाड़ी थे जिन्हें हम अंकल, चच्चा या चाचा ही कह कर सम्बोधित करते थे, उनके हम उम्र पन्ना भइया बुलाते थे. कोई अरे तुरे नहीं किसी की चूं करने की हिम्मत तक नहीं उनसे, उनकी तनी हुई मूछों के पीछे से मुस्कुराता चेहरा. उस पनवाड़ी ने इस समाज को करीब से देखा, समझा, समझाया, कई बार विवाह करवाया या रुकवाया भी कई बार. उस समय लोग देखुआर अक्सर मुहल्ले के पनवाड़ी से पूछकर ही अपनी लड़कियों के लिए वर ढूंढते थे. ऐसे थे तब के वो लोग.
यादें यादें अब बस यादें रह जाती हैं कल के उस दौर के निश्छल सामाजिक ताने बाने की बस यादें रह जायेंगीं, पीछे छूट चुके हमारे अपने शहर और बेगानों के शहर में खुद को कुछ करने के काबिल बनाते हम लोग, लड़ रहे हैं लड़ते रहेंगे उस दौर के हम लोग जब कोई हमसे पराया नहीं था.
सभी पुराने पनवाड़ियों के सम्मान में. पन्ना चच्चा की यूँ ही उठी याद में. समझने की कोशिश पुराना दौर नया दौर.
A writer having expertise in writing Multiple Domains. An Enthusiastic writer with a passion for Reading and writing. A Dedicated Reader and Multi Dimension Writer in WEXT India Ventures. I'm creating highly informative content for WEXT India Ventures about Entrepreneurship and Shark Tank India.

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