आठ दस भाई बहनों का घर था हमारा, किसने किसका बच्चा नहलाया पता नहीं, घर की हर महिला नहाने से पहले एक बार घर की चांदमारी करती कितने अवेलेबल हैं, जितने मिल जाते वो नहा जाते, फिर अगली खेप में कोई और उन्हें ले जाता. कभी चाची, कभी बुआ, कभी दादी और जो किसी ने न नहलाया तो रात में माँ नहलाया. अब हमरा पसीना बहुत गांधता था तो हम का करें. हाँ ई बात और है की हम कई बार हर चांदमारी से बच जाते थे काहे कि हम छुप जाते थे. थोड़ा नहाना धोना बचपन में हमें कम्मे पसंद था. फिर मचती थी दहाड़ रात नौ बजे पूरा मुहल्ला मिलकर नहलवाता था ऐसा बचपन था हमारा.
इंटरटेन मेन्ट के लिए रेडियो के अलावा कोई यंत्र न था अतः वही मर्फी दीदी, बुआ, माँ, चाची के हाथों से गुजरता हुआ शाम साढ़े आठ बजे दादा जी के हाँथ में पहुंचता, आल इंडिया रेडियो की खबरें, रेडियो सीलोन, बीबीसी बजता रहता पोलिटिकल और सामाजिक मसले डिसकस होते रहते थे, चाय अगर मिल गई तो चाय पे चर्चा वरना पान सुपाड़ी धरा है आप भी खाइये लोगों को भी खिलाइये.
फिर दादी अंदर से कई बार दहाड़ उठतीं, का आज इंदिरा सरकार गिरवाय के सभा ख़त्म होई. और दादा के कुछ कहने से पहले ही सब खिसक लेते.
इतना कहते कहते दादी उनसे बतियाने लगतीं, सब खाय चुके हम तू और बहुरिया बचें हैं अब खाय को, कौन बहुरिया ? कौनो हो तुमका का करना है, तुम हमरे एरिया में एंटर मत किया करो. अच्छा चलो खाना खाकर ही मुक्त करूँ तुम्हें, यहीं से बात कई बार अगली टर्न ले लेती तो कभी इमोशनल छोटे का काम ठीक नहीं, नौकरी मिल नहीं रही, कैसे करेगा लड़िकन बड़े हो रहे हैं, अच्छा अच्छा चलो कुछ करता हूँ लेकिन पहले दो कौर खिला दो, हाँ हमही तो आपका दाना पानी रोके हैं न.
अच्छा चलो बस, बहू खाना भेजो, बहू पर्सी हुई थाली लेकर दौड़ पड़ती लेकिन कई बार इस आवाज पर सोते हुए भी कुछ लोग जाग जाते थे और बहू की ससुर तक पहुँच पाने की आस अधूरी रह जाती थी.
जो जिस दिन पहुँच गया वह अपनी समस्या कह सकता था, अक्सर बच्चे और घर की महिलाएं ही इन शिकायकर्ताओं में शामिल होते थे.
घर के मर्द उनसे छुपकर गैलरी से अंदर आते और जाते से रहते थे, हमारे सोने से पहले कम ही नजर आते थे वो लोग.
शाम को काम से लौटकर सबकी चकल्लस की जगहें थीं, चौराहा, पार्क, पनवाड़ी, चाय की गुमटी, शाखा वगैरह.
हर प्रकार के विचार तब सीधी बहसों में मान्य थे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और संघी विचार साथ साथ चलते थे बहसों में. इन्हीं बहसों में एक बार तो हद्द हो गई, मेरे पिता बहस के दौरान इतने उत्तेजित हो गए कि मुझे पनवाड़ी के यहाँ ही छोड़कर आ गए, बाद में पनवाड़ी चच्चा मुझे घर छोड़कर आये, अब छोड़ने आये तो बाबा सामने, उन्हीं को सौंपा, वाक्या बताया, पिता जी को सब के सामने ऐरोगेंट कम्युनिस्ट तक कह दिया गया. मैं चुप चाप खड़ा सब देख रहा और सन्नाटा होते ही बोला मैं जाऊं और इस तरह ठहाकों के साथ बंद हुई सीरियस गुफ्तगूं. एक ही घर में संघी, कोंग्रेसी और कम्युनिस्ट साथ साथ भी पाए जाते थे.
बहसें होती थीं लेकिन अगली टर्न सिर्फ मियां बीवी के रिश्तों में होता था, इसने ऐसा किया उसने वैसा किया और अनमने ढंग से सुनता मर्द सो सा जाता, और फिर रात हो जाती बत्तियां बंद हो जातीं सोते जागते बच्चे और कपल्स, दादी बुआ सब अपने लिए निश्चित जगह पर सो जाते, हाँ बच्चे अपनी पसंद, मर्जी और स्वार्थ से प्रेरित होने के कारण अलग अलग दिन अलग अलग लोगों के पास सोये मिलते थे.
बाबा के पास अक्सर मैं ही सोता था, जब माँ रात में नहला देती तो अंत में दादा जी ही मुझे तौलिये में लपेटकर ले जाते, मैं थोड़ा बात करने में तेज था तो बाबा मुझे ही तरजीह दे पाते बाकी सब उनकी आवाज सुनकर दुबक जाते थे, मैं ही मात्र निडर और छोटा बच्चा था, अतः अपनी उनसे खूब दाल गलती.
मुझे कई बार अपने साथ दावतों में साथ ले जाते और एक बार तो हद्द हो गयी बारिश हो रही थी और पोता खा रहा था दादा खिला रहे थे भीगते हुए. पिता जी ने कहीं से देख लिया मुझे डांट लगाने की असफल चेष्टा करने लगे, दादा के आगे एक न चली पर घर आके पिटा…..
और जम के पिटा पर किसे फिर याद था, उन्हीं के साथ सुबह जलेबी खाने निकला थोड़ी उन्होंने भी खाई यह बताते ही पता नहीं कहाँ से बगावत की आंधी आ गई…… इनको डाइबिटीज है तब भी, सब टूट पड़े जैसे मौके की तलाश में थे….. दादू ने आँखों आँखों में मुझे वहां से भागने को कहा……. कयोंकि अब नंबर मेरा ही था, मैं भी बस ओढ़ बीढ़ के सो गया………
और अगली सुबह तो फिर अपनी थी