नदी-अपेक्षा-करती-है-poetry
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“नदी अपेक्षा करती है”



हिमगिरि को जब गर्मी लगती है
सहस्रों बूँदें रिसने लगती है
मिलन जिस धरातल पर होता है
नदी वहीं से बहने लगती है।

बूँद-बूँद की संयुक्त सभा मे
नव उद्दगम पर हर्षित होती है
बाहें थामे सबसे मिलती है
स्वर करती गीत मधुर रचती है।

हो हरी धरा-रहें खुश संसारी
ये सोच नदी पथाग्र चुनती है
जो यहीं रही फिर जम सकती है
ठहराव सदा सडने लगती है।

अमृत तट से ‘घट’ भरेंगे मानस
वो सबका हित मन मे रखती है
विघ्न चीर कर रस्ते बुनती है
पथ अर्जित कर बहने लगती है।

शीतल ,निर्मल जिस राह गुजरती
उसी तट गाँव बसने लगते हैं
खग,पशु,जलचर,जीवन पलते हैं
वन,खेत खडे मस्ती करते है।



अविरल लहराती ये जल धारा
क्षीर तक मधुर सपने बुनती है
ये जल जिस पर सृष्टि चलती है
क्यों गंद अभिन्नदन पर डलती है?

फूल,समाग्री,विसर्जन यहीं क्यों?
विष,मैल,द्रव्य,कितना सहती है
जब मानस प्रवृति दुखी करती है
क्यों घर छोडा सोचा करती है ?

हाथ जोडते,नमन भी करते
क्या तृष्कार कर श्रदा चलती है?
यूँ नदी अस्तित्व खो सकती है
जल बिन धरा नष्ट हो सकती है।

विकल्प तो है-बस मन समझालो
विसर्जन की प्रथा हल करनी है
त्यागो नदी अपेक्षा करती है
इस श्रद्धा से नदी बडा डरती है।

क्या गंद? श्रद्धा रखी, पर आँखें बंद
उद्दोगंद मत डालो ?पर डलनी है
छोड तर्क-कवि मत कस, चुभती है
कुछ ठेस बडी महँगी पडती है।



Bijender Singh Bhandari, First Hindi Blogger on WEXT.in Community is retired Govt. Employee born in 1952. He is having a Great Intrest in Writing Hindi Poems.

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